Monday, January 25, 2021

एक शाम कालापोखरी पर...

एक शाम कालापोखरी पर

भाग-1

गरीबास (2630 मीटर) से 11.40 बजे चले करीब सवा घंटे से ऊपर हो चुका है  और लगातार पचास डिग्री के कोण पर पैर पटकते रहने के बावजूद हम सिर्फ एक ही  दायरे में ऊपर ऊँचे उठते जा रहे थे।  चढाई खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। नीचे लोगों ने बताया था कि मात्र दो किमी की चढाई है पर तीखी चढाई और मौसम की बेबफाई हमें कडी़ टक्कर दे रही थी। मौसम जबरदस्त ट्रैक करने लायक है,  हल्की धूप और मंद मंद चल रही बर्फ सी ठंढी हवा अच्छी लग रही है।  ट्रैक कहींपर सीमेंटेड तो कुछ कुछ दूर पर पत्थरीले बोल्डर वाले,  ऊबड़ खाबड़।  सावधानी हटी दुर्घटना घटी। 

संगलीला वन प्रक्षेत्र बहुत ही खुबसुरत हैं जो भारत और नेपाल दोनो ओर फैला है।  इस ट्रैक तक पहुंचने के लिए कभी भारत कभी नेपाल की सीमा का मनमर्जी उपयोग किया जाता है।  

हमारे से आगे एक परिवार चल रहा है  जिसमें एक दम्पति के साथ एक बारह साल का बच्चा भी है  जो अपने गाइड के साथ चल रहा है।  बच्चे बडो़ की तुलना में तेज चलते हैं और पूरा आनन्द लेते हैं ट्रैकिंग का।  इनके अलावे तीन युवाओं का एक समूह भी है जो शार्टकट रास्तों पर बनी सीढियों का उपयोग करते हुए आगे बढ रहे हैं।  उनका गाइड सह पोर्टर  भी  साथ चल रहा है।  और इन सब के उलट हम तीनों जिनके साथ ना तो गाइड है और ना ही पोर्टर।  

हाँलाकि कि गरीबास तक आने में यह प्रतीत होने लगा था कि इस ट्रैक के लिए  गाइड आवश्यक है।  इसलिए नहीं कि रास्ते उलझे हुए हैं  रास्ते तो एकदम सीधे और सच्चे हैं । बल्कि इसलिए कि  गाइड का नाम हर बार चैक पोस्ट पर रजिस्टर में इंट्री करनी होती है और स्थानीय ट्रैकिंग समिति ने इसे आवश्यक कर रखा है।  प्रतिदिन 1000/- की दर से  चाहे आप अकेले हो या समूह मे। और हमने तो गाइड लिया ही नहीं और जुगाड़ विद्या लगाकर अबतक की सभी चेक पोस्ट पार कर चुके थे। 

तीखी चढाई ने हवा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी , पर हमलोग भी थोड़े जिद्दी ठहरे। दो किमी की चढाई खत्म हुई,  एक छोटे से ठहराव पर ..... जिसका नाम है...... कायिकत्था, (2900 मीटर) । कायिकत्था,  हाँ यही नाम बताया था एक स्थानीय ने।  और हमने हिंदी में यही उच्चारण किया।  आंगल भाषा में KAIYAKATTHA (NEPAL)  लिखा था सूचना पट्ट पर।  यह नेपाल की सीमा में है। यहाँ दो तीन प्राइवेट होमस्टे या  गेस्ट हाउस  है जहाँ  आपात स्थिति में रुका जा सकता है,  पर अधिकतर ट्रेकर गरीबास से चलकर कालीपोखरी या सीधा संदकफु  ही रुकना पसंद करते हैं।

दो किमी की चढाई मे हमने करीब 270 मीटर की ऊँचाई को पार किया।  अब यहाँ से  हमें लगभग 4 किमी चलकर  3200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित  #कालीपोखरी पहुँचना है।  स्वयं समझा जा सकता है  4 किमी में 300 मीटर की ऊँचाई और 2 किमी में 270 मीटर की ऊँचाई।  

पहाड़ पर धुंध बढ़ने लगी और हमारी धड़कने भी..। पल पल लग रहा था कि कहीं ये मौसम आज भारी पड़ने वाला है ।  accuweather report में लगातार इसे बेइमान बताया जा रहा था। कायिकत्था पर हम चाय और बिस्किट के लिये रुके और फिर तेज कदमों से कालापोखरी की ओर बढ़ चले।  हमारी आने वाली मंजिल अभी हमसे  चार किमी दूर थी।  हाँ , इस वक्त चढाई खत्म हो चुकी थी और आने वाले 4 किमी लगभग समान स्तर के हल्की चढाई वाले रास्ते थे पर पत्थरीले बोल्डर वाले। सावधानी हटी दुर्घटना घटी। 

यूँ तो,  मनेभंजंग से संदकफु तक  प्रत्येक दो-तीन किमी पर ठहराव है और खाने रुकने की व्यवस्था भी है । इसलिए,  अपनी अपनी क्षमता से रुकते बढते चलने में भी खास दिक्कत नहीं महसूस होती है। इन पत्थरीले बोल्डर वाले तीखे मोड़युक्त और तीखे हेयरबैण्ड वाले रास्तो पर 1956 की  लैंडरोवर फुदकती हुई यूँ चढती है जैसे पेड़ की शाखाओं पर मुनिया पक्षी। 

मुनिया एक पक्षी है जो भारत, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, फिलिपीन्स तथा अफ्रीका का देशज है। इसका आकार गौरैया से कुछ छोटा होता है। यह छोटे छोटे झुंडों में घास के बीच खाने निकलती है। खेतों में भूमि पर गिरे बीजों को खाती है। मंद-मंद कलरव करती है। यह छोटी झाड़ियों या वृक्षों में 5-10 फुट की उँचाई पर घोसला बनाती है।
इसकी चार पाँच उपजातियाँ हैं: श्वेतपृष्ठ मुनिया, श्वेतकंठ मुनिया, कृष्णसिर मुनिया, बिंदुकित (spotted) मुनिया तथा लाल मुनिया।

अचानक कुछ गड़गड़ाहट सी सुनायी पडी़ हमने सोचा कि शायद कोई गाडी़ आने वाली है  और एहतियातन हम लोग ट्रैक से हटकर एक तरफ हो गये पर कोई नहीं  आया और अचानक ढेर सारे महीन छर्रे हमारे चेहरों पर गिरने लगे..  अरे यार... ये तो बर्फबारी शुरू हो गई.. हम और तेज कदम से आगे बढने लगे और बौछारें भी तेज होने लगी हमने रुक कर अपने अपने  बैकपैक से रेनकोट निकाले और पहन लिए। हमारे  रास्ते काले से सफेद होने लगे थे।  भागते कदमों की रफ्तार मंद होने लगी।  नजरे नजारो से हटकर पैरो तले महीन और ताजे बर्फ पर गड़ने लगी।  चर्र चर्र की आवाज जूतों के नीचे से आने लगी और हम अपने  बहकते कदमों को रोक पाने में नाकाम हो रहे थे। 

रास्ते अब धुंधलके मे धीरे धीरे गुम होने लगे थे,  बादलो और धुंध ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था।  सुनसान और अँधेरे में डुब रहे रास्तों पर हमारे ही कदमों की आवाज पूरे  वातावरण को रहस्मयी बना रही थी। बर्फबारी कभी तेज तो कभी धीमी हो रही थी पर हमारे लाख चाहने पर भी रुक नहीं  रही थी।  हमारे पैरों और जमीन के बीच बिछ रही सफेद दानेदार बर्फ की परत मोटी होने लगी थी।  अब हमारे पैरों के रक्षक  जूते कुछ इंच तक धँसने शुरु हो गये थे  जिसके कारण मेरे  साथियों के जूते गीले  होने लगे और बर्फीली नमी उनके गरम मोजो को भीगाने लगी।  ठंड की सिहरन अब पैरों से भी शुरू हो चुकी थी।  मेरे साथ राहत की बात यह थी कि मेरे जूते  वाटरप्रूफ होने के कारण मै उस सिहरन से अंजान था।  

इस वक्त हम अपने आपको असुर समझने लगे कि जैसे हम स्वर्ग पर आधिपत्य जमाने के लिए इंद्रलोक पर हमला करने जा रहे हों और इंद्र,  वरुण और पवन देव हमारे  इस कथित आक्रमण को असफल करने की जीजान से कोशिश कर रहे थे।  थोडी़ देर पहले ही  पाण्डेजी ने आस पास के दिल लुटने वाले नजारों को देख कर इस जगह को स्वर्ग की उपाधि दे डाली थी।  शायद यह स्वर्ग के देव इंद्र के सिंहासन को हिलाने के लिए काफी सिद्ध हो गया और अब हम तीनों ही इस स्वर्गारोहण के दोषी हो गये। 

मंथर गति से चलते हुये  हमें लगभग डेढ़ घंटा हो चुके थे और मंजिल दूर....।  एक मोड़ पर मुड़ते ही हमें हल्की सी झलक मिली और हमारे चेहरे खिल उठे।  हमने  तिरंगे को लहराते देखा।  जान में जान आने लगी कि इस विकट मौसम में जुझते हुए हम #कालीपोखरी पहूँच गये।  सबने एक दूसरे को हाई फाइव दिया और जय हिंद की उद्घोष कर डाली।  पर...  हमारी ये खुशी जितनी तेजी से मिली थी उससे भी ज्यादा तेजी से दूर भी हो गई। 

भारत की सशस्त्र सीमा बल की निगरानी में यह ट्रैक सुरक्षित है।  सभी चेक पोस्ट उन्ही के जिम्मे है।  जब हम #मनेभंजंग से आगे बढ़ते है तो वही से इनकी सुरक्षा चौकिंया पूरे  भारतीय साइड के ट्रैक पथ पर मिलती हैं। ट्रैक के दौरान अक्सर हमें दो रास्ते मिलते हैं जिसमे एक भारतीय ट्रैक पथ है और दुसरा नेपाल का।  कहीं कहीं तो दोनों देशों की सीमा रेखा का फर्क सिर्फ एक पतली सी नाली हीं है ।  

वो तिरंगा हमारी मंजिल नहीं थी बल्कि सशस्त्र सीमा सुरक्षा बल की एक चौकी थी। यानि अभी हमे और चलना था।  बर्फबारी हल्की या नाममात्र की हो रही थी,  हम सब राहत की साँस ले रहे थे  और अब धुंध छटने की आस लगाने लगे थे। चाल में तेजी लाने का प्रयास शुरु हो चुकी थी पर सावधानी के साथ। तभी सामने ऊपर से  दो गाडि़या आती दिखी हम एहतियातन किनारे खडे़ हो गये और उनके पास आने का इंतजार करने लगे।  जैसे ही वो हमारे पास से गुजरी हम सब ने एक साथ उत्कंठित स्वर में  एक ही सवाल पूछा कि "मैलोडी इतनी चौकलेटी कैसे बनी?" 
.. जी नहीं... हम मजाक के मूड में नहीं थे।  अभी हम गंभीर थे 🙁और  सवाल किया कि #कालीपोखरी अभी कितनी दुर है?  पर सामने वालों ने शीशे चढा रखे थे और सर्र से बिना कोई जबाब दिये निकल लिये और हम मुँह ताकते रह गए। खैर आगे बढ़ने का कार्यक्रम जारी रखते हुए हम चल दिये।  आस पास पेड़ पौधो के अलावे हमारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं था।  अंदाजे से  हमलोग को चलते हुये करीब दो सवा दो घंटे बीत चुके थे।  हमारा मन भी कह रहा था कि  "आस पास है  खुदा"... मतलब #कालीपोखरी भी अब पास ही होनी चाहिए। 

अचानक घोड़ों के चलने की आवाज आई।  हम सतर्क हो आँखे पूरी तरह से खोलकर धुंधलके मे दूर तक देखने की कोशिश करने लगे।  आवाजें पास आ रही थी  अब साथ मे कुछ लोगों की मिश्रित आवाजे भी आ रही थी।  शायद स्थानीय लोग हो इससे पूरी तरह समझ नहीं आ रही थी। हम भी बढ रहे थे।  अगले मोड़ पर मुड़ते ही घोड़ों का झुण्ड नजर आया फिर तीन #कांछा आपस मे बतियाते हुए देखे जो सामने से चले आ रहे थे।  कालापोखरी अभी कितनी दुर है?  हमने छुटते ही पूछा...।  पास ही है... 500 मीटर। बिना रुके वो आगे निकल गये और हमभी...।  

बर्फबारी हल्की हल्की अभी भी जारी थी।  अब हम तेज कदमों से आगे बढने लगे। चर्र चर्र... चर्र... चर्र... चर्र... 
ये आवाजें भी तेज हो गई थी। पहाडो़ के 500 मीटर भी थका देने वाले होते हैं।  घुमावदार हेयरपिन बैण्ड एक के बाद एक आते जा रहे थे और हम लोग #आगे_से_लेफ्ट वाले फार्मूलें का पालन करते जा रहे थे। 

रेनकोट के अंदर की उमस बढ रही थी,  बाहर बर्फबारी चालू। एकाएक से बर्फबारी काफी तेज हो गई, ये हमलोग पर जबरदस्त हमला था। अब कुछ नहीं हो सकता था सिवाय चलते रहने के।  धुंध गहरा गई थी जो अब अँधेरे का रुप लेने लगी थी। हम सब बिना बताये भी एक दुसरे की फटी पडी़ हालत  और सामने पडी़ हालात को समझ रहे थे।  हवा चल नही रही थी उड़ा रही थी और अगली मोड़ पर मुड़ते ही वो हुआ जिसकी हमलोगों को अभी अँदाजा नहीं था।  

यहाँ रास्ते पर लगभग चार से पाँच इंच तक सफेद ताजी मुलायम बर्फ की चादर और हमारे बायीं ओर के टीले पर लहराते हुए बौद्ध प्रार्थना पत्र की रंगीन झंडिया और एक छोटी तालाब,  दिखी।  आगे मै ही चल रहा था मुझे पहले दिखी।  मै रुक गया तो दोनों साथियों ने पूछा क्या हुआ?  मै चुप रहा।  वे दोनों अबतक पास आ चुके थे और  देखते ही शांत हो गये।  हाई फाइव के लिए हाथ उठे जरुर पर हुए नहीं  क्योंकि स्नोफाल अब तेज आँधी का रुप ले रही थी।  कुछ भी नहीं देख पाना संभव हो रहा था।  भाग भी नहीं सकते थे साँसे तेज हो चुकी थी।  

इस तरह के मौसम और वातावरण का कोई अंदाजा नहीं था।  और तो और #कालीपोखरी पर अभी किधर और कितनी दुर जाना है जहाँ सर छुपाने की जगह मिलेगी ये भी नहीं  पता।  बस,  इंटरनेट पर पढी हुई ब्लाग और उसपर दिखे दिलकश और मनमोहक दृश्यों को देख मुँह उठाये चले आये थे।  और यहाँ जो घटित हो रहा था इसके बारे में कही पढा़ ही नहीं।  मैदानी भागो मे रहने वालो के लिए  तो  पहाडो़ के सामान्य मौसम भी पहाड़ समान ही होते हैं।  पर ये तो........। 

पैरों मे ठंड का अहसास तेज होने लगा था।  मोजे गिले हो गये थे और जूते?  वो तो बाहर दिख ही नहीं रहे थे।  बर्फ में धँस चुके थे।  बर्फीली हवा में आँखे पूरी तरह से खोल नहीं पा रहे थे हम सब।  झिर्री से देखते हुए अब हम एक छोटी सी चढाई पर आ गये थे जहाँ से बर्फीली हवा हमे पीछे धकेल रही थी। करीब 50 मीटर चलने के बाद सामने एक शेड जैसा दिखा। उस वक्त डूबते को तिनके का सहारा वाली कहावत पूरी भावार्थ के साथ  समझ आई। शायद इसीलिए लोग कहते हैं कि घुमक्कड़ी एक विद्या है जो बहुत कुछ सीखाती है।  

खैर...  अब हम सब  शेड में थे।  छोटा सा करीब आठ फीट लंबा और चार  फीट चौडा़ शेड था संभवतः कोई दुकान रहा होगा। अभी भी खाली नहीं था उसमें  पहले से चार लोग जिनमे तीन पुरुष और एक पुरुष नहीं था।  माने एक महिला घुमक्कड़ थी सभी अपने बैकपैक के साथ आसरा लिए हुए थे।  पूछने पर मालूम चला कि एक पुरुष और एक महिला चेन्नई से,  एक पुरुष  मुंबई से और एक पुरुष स्थानीय गाइड था।  जो करीब चालीस मिनटों से इस शेड के शरणार्थी थे। अब हम तीनों ने भी शरणार्थी होने का दावा पेश कर दिया था। 

तेज बर्फबारी जारी है...

शेष अगले भाग में...









Wednesday, August 21, 2019

..बाहर बारिश अपने पूरे शबाब पर थी, मैने सोचा कि चलो देखते हैं.. और कान उमेठ दी, पवनदूत की.. कुछ ही मिनटो मे एक कट आया और हमने कट लिया.. रास्ता बारिश मे थोडा़ उबड़ खाबड़ हो रहा था पर ठीक था।
...करीब 1500 मीटर अंदर आने पर जो दिखा वो दिल को खुश करने के लिए काफी था। .. घनी बारिश मे मैदानो से पहाडों तक हरियाली फैला थी, पहाडो़ से चलकर झरने कदमों को चूम रहे थे, धुंध ने रास्तों को यूँ ढक रखा था मानों वे उन्हें बुरी नजरों से बचाना चाह रही थीं। 


बाबा गुप्तेश्वर नाथ धाम की बाइक यात्रा

बाबा गुप्तेश्वरनाथ धाम की बाइक यात्रा

...सावन माह, यानि देवों के देव महादेव की आराधना करने, उन्हें प्रसन्न करने का खास वक्त। साल के इस महीने में सभी नर-नारी, इस वक्त को अपनी-अपनी मनोकामना पूर्ण करने हेतु यथा शक्ति येन-प्रकरेण, भोलेनाथ की कृपा दृष्टि पाने में जुट जाते हैं। इसी भाव से मैं भी कुछ करने की कोशिश में लगा हुआ था।

.....दिन बुधवार तारीख़ 6 जुलााई 2017, अपने कार्यालय में रोज की तरह खुद को काम में जोते हुए था। उसी समय, मेरे कार्यालय के विद्युत  विभाग में कार्यरत कर्मी राकेश कुमार आजाद  ने यह कहते हुए मेरा ध्यान बंटाया कि सर, सावन आने वाला है कुछ लोग पहली सोमवारी को बाबा गुप्तेश्वरनाथ धाम जाने वाले हैं क्या आप चलेंगेपता नहीं, राकेश ने यह प्रस्ताव किस भाव से दिया, मुझे लगा कि चलो बुलावा आया है बाबा ने बुलाया है । अंतर्मन ने भौतिक मन से पहले ही हामी भर दी; तो मुंह से हामी भरना; मात्र  औपचारिकता बन कर रह गयी ।

परकहते है ना कि ये  दिल मांगे मोर..., एक क्षण गँवाये बिना मैने कहा कि बाईक से चलते हैं । उसने पूछा - कितने घंटे लगेंगे? यह सवाल मेरे लिये केबीसी का सात  करोड़ का प्रश्न बन गया, क्योंकि बाबा गुप्तेश्वरनाथ धाम  की मेरी यह पहली यात्रा थी। फिर, मैने  अपनी लाइफ लाइन फोन अ फ्रेंड का उपयोग करते हुए खोजी बाबा को फोन खड़काया. .अरे भाई अपने गूगल बाबा। मैने उनकी  सेवाओं का लाभ लेते हुए पटना से  गुप्तेश्वरनाथ धाम के मार्ग का पता माँगा और बाबा  बड़े चमत्कारी ठहरे; इधर की-बोर्ड पर इंटर का बटन दबाया, उधर गूगल अर्थ ने कम्प्यूटर स्क्रीन पर नीली रेखा खींच दीसाथ ही बता दिया कि - भईया राष्ट्रीय राजमार्ग 922 को अपना हमसफ़र बना कर 176 किलोमीटर चलना है करीब 5 से 6 घंटे लगेंगे। इसके लिए तुम्हेंपटना से फुलवारीशरीफ-दानापुर-बिहटा-कोइलवर-आरा-विक्रमगंज होते हुए सासाराम पहुंचना होगा  फिर सासाराम से बाबा गुप्तेश्वर नाथ धाम जाने के लिए दो रास्ते हैं एक रास्ता सासाराम से राष्ट्रीय राजमार्ग पर 1 किलोमीटर आगे बढ़ने पर बायीं  तरफ मुड़ जाता है जो पनारी (पेनारी ) घाट  होते हुए पहुंचता है  और दूसरा रास्ता उसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर 5 किलोमीटर आगे चलकर , शेरशाह सुरी के द्वारा बनवायेे प्रसिद्ध  ग्रैंड ट्रंक रोड पर पहुंचता है। ग्रैंड ट्रंक रोड पर करीब 5 किलोमीटर चलने के बाद, फिर बायीं ओर शिवसागर होते हुए  छोटकी चेनारी , बड़की चेनारी गांव , मलाहिपुर होते हुए उगहनी घाट के रास्ते बाबा गुप्तेश्वर नाथ धाम पहुंचता है।


यूँ तो, बिहार राज्य में भोलेनाथ की कई प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिर हैं। परकुछ विशेष और रहस्यमयी, जैसे रोहतास के जिला मुख्यालय सासाराम से सटे कैमूर की पहाड़ियों में स्थित बाबा गुप्तेश्वर नाथ धाम, बिहटा स्थित बाबा बिहटेश्वर नाथ मन्दिर, गया जिला के मखदुमपुर के पास बाणावर क्षेत्र में सुर्यान्गिरी पहाड़ी की चोटी पर स्थित सिद्धेश्वरनाथ महादेव मन्दिर, लखीसराय स्थित अशोक धाम मुख्य हैं। झारखंड राज्य बनने के पूर्व देवघर स्थित बाबा बैजनाथ धाम, जो द्वादश ज्योतिर्लिंगों मे से एक हैं और वासुकिनाथ धाम भी बिहार राज्य का ही हिस्सा थे। जो अपने-आप में लोक आस्था का जीता जागता स्वरूप है।

चूँकि, हम पहली बार हीं जा रहे थे, तो पहले से हमारा, कोई तय रास्ता नहीं था। हमारे सहकर्मी मनजी पासवान जो उधर के  स्थानीय निवासी भी  है और उन्हें उधर के रास्तों के बारे में अच्छी जानकारी है, ने बताया कि पनारी घाट से  यात्रा का पारंपरिक पैदल मार्ग है, पैदल ज्यादा चलना पड़ता है पर चढ़ाई कम है। उस रास्ते पर  यात्रियों का आवागमन ज्यादा रहता है तो उधर मूलभूत सुविधाएं जैसे दुकानें, पहाड़ी नदियों पर अस्थायी पुल इत्यादि हैं। पर, चेनारी, उगहनी घाट की तरफ से खड़ी चढ़ाई  है लेकिन उधर से  कम पैदल मार्ग चलना पड़ता है । जबकि, हमारे एक सहयात्री मनोज, जो  पहले  पनारी घाट से जा चुके थेउनका कहना था कि दूसरे तरफ  की चढ़ाई ज्यादा खड़ी है  और आप पहली बार जा रहे हैं  इसलिए  थोड़ी दिक्कत होगी ।

ये मेरी पहली यात्रा जो बाइक से होनी थी, साथ में पहाड़ की खड़ी चढ़ाई, जंगल के बीच से ट्रैकिंग, पहाड़ी नदियों को बिना तैरना जाने पार करना; हे भोलेनाथ, एक साथ इतना सारा एडवेंचर, मेरी तो मानो लॉटरी लग गयी। हम तो तीर्थ यात्रा के साथ-साथ एडवेंचर वाली ट्रैक करने जा रहे हैं, इसलिए, अन्तिम फैसला चेनारी उगहनी घाट का ही रास्ता चुना गया।

हमसब ने 9 जुलाई की सुबह को मिलने का निश्चय किया। कार्यालय में 9 जुलाई, रविवार की छुट्टी की अर्जी डाल दी, क्योंकि मेरा कार्यालयी अवकाश सोमवार को होता है। 7 और 8 बड़ी मुश्किल से बीते, हाँ इस बीच कुछ और सहकर्मियों ने भी यात्रा के लिए हामी भरी।

दिनांक 9 जुलाई 2017 को सुबह 4.00 बजे उठकर दैनिक क्रिया से निपट कर यात्रा का सामान तय किया, सामान क्या बस एक जोड़ी बाबा के नाम की केसरिया, 1 टॉर्च, 4 बैटरी (ड्यूरा सेल), गमछा, अपना कैनन कूलपिक्स कैमरा, दो प्लास्टिक थैली(पानी में कैमरा और कपड़ों की हिफाज़त के लिए)एक छोटी पीतल की लोटनी में हरिद्वार से लाया गंगा जल, इन सबको एक हैण्ड बैग में डाला, हेलमेट उठाया और जंग जीतने को तैयार हो गये ।

5.30 बजे घर पर चाय पीते हुए राकेश को फोन किया और उसे मन्दिर (कार्यालय) पहुंचने को बोल दिया। इधर धर्मपत्नी ने हैप्पी जर्नी विश किया और 5 मिनट में कार्यालय पर बाइक खड़ी कर दी। हनुमान जी की कृपा से मेरा कर्मक्षेत्र और धर्मक्षेत्र दोनों एक ही जगह है। हनूमान जी को प्रणाम किया, और सहयात्री का इंतजार करने लगा । पाँच मिनट में राकेश भी आ गया, पर एक सहकर्मी ने अन्तिम समय में चलने में असमर्थता जतायी जिससे करीब डेढ़ घंटा का समय व्यर्थ गया। अब मैने राकेश से चलने को कहा। 
.....तभी मेरे कार्यालय का एक और कर्मी जो भभूआ का रहनेवाला है, ने साथ चलने का आग्रह किया । मैने कहा- पाँच मिनट में तैयार हो।  वो बोला-  सर, हम तैयारे बानी.. हमार तो घर और ससुरार दुन्नो ओहिजे बा.. । 
.....07.45 बज चुके थेफिर काहे कि देरी.. राकेश और  मनजी  एक बाइक पर सवार हो गए, और मैने भी बाइक बढ़ा दी।
क्रमशः..
महावीर मन्दिर, पटना


उदवंतनगर के रास्ते में


हमारा पवनदुत

सोन नदी पर बना कोईलवर पुल

खुबसूरत दृश्य



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Tuesday, October 17, 2017

यादें : एक पिता की, एक पुत्र की

अब मेरे पास शेष हैं पिताजी की यादें...

क्यूँकि पिता जी नहीं रहे। दिनांक 14.10.2017 को 00.15 बजे पी. एम. सी. एच के इमरजेंसी वार्ड में उन्होने अन्तिम साँस ली । ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को शांति दे।

पिताजी, दो भाइयों में बड़े होने के कारण पारिवारिक जिम्मेदारियों का पालन भी बखूबी से किया। मेरे दादा जी, धरहरा इस्टेट के मुख्य अमीन थे, और वे इस्टेट  के कार्यों में ज्यादा व्यस्त रहते थे, जिसके कारण घर की देखरेख की सारी जिम्मेदारी पिता जी के काँधों पर थी । पिता जी ने हमेशा पारिवारिक सामंजस्यता बनाये रखने और पूरे कूनबे को बाँधे रखने की परम्परा को प्राथमिकता दी । अपने से सभी छोटे भाईयों के प्रति वात्सल्य का भाव रखा ।स्वयं स्थानीय ग्रामीण हाई स्कूल तक की  शिक्षा  प्राप्त की, पर अपने अनुज भाई को पटना स्थित पटना विश्वविद्यालय से उच्चस्तरीय शिक्षा दिलायी और उन्हें मैकेनिकल इंजीनियर बनाने में पूरा सहयोग किया ।  मेरे आदरणीय चाचाजी बोकारो स्टील के पावर प्लांट से डिप्टी मैनेजर के पद से सेवानिवृत हो चुके हैं ।

अपने समय के व्यवस्थित और समृद्ध किसान थे, जिन्होंने,  गाँव की माटी से माँ के दुलार सा रिश्ता संजोए रखा था, पर हमलोगों के उज्जवल भविष्य के खातिर उन्हें अपने जड़ से उखड़ कर कंक्रीट के शहर में जी तोड़ मेहनत करना शुरू किया । हमेशा  अपनी निजी सुख सुविधाओं का परित्याग करते हुए हमारी माताजी और  हमसब भाई-बहनों को असुविधाओं की तपिश महसूस नहीं होने दिया । हम सब के लालन-पालन, बेहतर शिक्षा, जरुरी-गैरजरूरी मागों को पूरा करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी । समय-समय पर अपने सामाजिक और सांसारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह किया ।