एक शाम कालापोखरी पर
भाग-1
गरीबास (2630 मीटर) से 11.40 बजे चले करीब सवा घंटे से ऊपर हो चुका है और लगातार पचास डिग्री के कोण पर पैर पटकते रहने के बावजूद हम सिर्फ एक ही दायरे में ऊपर ऊँचे उठते जा रहे थे। चढाई खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। नीचे लोगों ने बताया था कि मात्र दो किमी की चढाई है पर तीखी चढाई और मौसम की बेबफाई हमें कडी़ टक्कर दे रही थी। मौसम जबरदस्त ट्रैक करने लायक है, हल्की धूप और मंद मंद चल रही बर्फ सी ठंढी हवा अच्छी लग रही है। ट्रैक कहींपर सीमेंटेड तो कुछ कुछ दूर पर पत्थरीले बोल्डर वाले, ऊबड़ खाबड़। सावधानी हटी दुर्घटना घटी।
संगलीला वन प्रक्षेत्र बहुत ही खुबसुरत हैं जो भारत और नेपाल दोनो ओर फैला है। इस ट्रैक तक पहुंचने के लिए कभी भारत कभी नेपाल की सीमा का मनमर्जी उपयोग किया जाता है।
हमारे से आगे एक परिवार चल रहा है जिसमें एक दम्पति के साथ एक बारह साल का बच्चा भी है जो अपने गाइड के साथ चल रहा है। बच्चे बडो़ की तुलना में तेज चलते हैं और पूरा आनन्द लेते हैं ट्रैकिंग का। इनके अलावे तीन युवाओं का एक समूह भी है जो शार्टकट रास्तों पर बनी सीढियों का उपयोग करते हुए आगे बढ रहे हैं। उनका गाइड सह पोर्टर भी साथ चल रहा है। और इन सब के उलट हम तीनों जिनके साथ ना तो गाइड है और ना ही पोर्टर।
हाँलाकि कि गरीबास तक आने में यह प्रतीत होने लगा था कि इस ट्रैक के लिए गाइड आवश्यक है। इसलिए नहीं कि रास्ते उलझे हुए हैं रास्ते तो एकदम सीधे और सच्चे हैं । बल्कि इसलिए कि गाइड का नाम हर बार चैक पोस्ट पर रजिस्टर में इंट्री करनी होती है और स्थानीय ट्रैकिंग समिति ने इसे आवश्यक कर रखा है। प्रतिदिन 1000/- की दर से चाहे आप अकेले हो या समूह मे। और हमने तो गाइड लिया ही नहीं और जुगाड़ विद्या लगाकर अबतक की सभी चेक पोस्ट पार कर चुके थे।
तीखी चढाई ने हवा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी , पर हमलोग भी थोड़े जिद्दी ठहरे। दो किमी की चढाई खत्म हुई, एक छोटे से ठहराव पर ..... जिसका नाम है...... कायिकत्था, (2900 मीटर) । कायिकत्था, हाँ यही नाम बताया था एक स्थानीय ने। और हमने हिंदी में यही उच्चारण किया। आंगल भाषा में KAIYAKATTHA (NEPAL) लिखा था सूचना पट्ट पर। यह नेपाल की सीमा में है। यहाँ दो तीन प्राइवेट होमस्टे या गेस्ट हाउस है जहाँ आपात स्थिति में रुका जा सकता है, पर अधिकतर ट्रेकर गरीबास से चलकर कालीपोखरी या सीधा संदकफु ही रुकना पसंद करते हैं।
दो किमी की चढाई मे हमने करीब 270 मीटर की ऊँचाई को पार किया। अब यहाँ से हमें लगभग 4 किमी चलकर 3200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित #कालीपोखरी पहुँचना है। स्वयं समझा जा सकता है 4 किमी में 300 मीटर की ऊँचाई और 2 किमी में 270 मीटर की ऊँचाई।
पहाड़ पर धुंध बढ़ने लगी और हमारी धड़कने भी..। पल पल लग रहा था कि कहीं ये मौसम आज भारी पड़ने वाला है । accuweather report में लगातार इसे बेइमान बताया जा रहा था। कायिकत्था पर हम चाय और बिस्किट के लिये रुके और फिर तेज कदमों से कालापोखरी की ओर बढ़ चले। हमारी आने वाली मंजिल अभी हमसे चार किमी दूर थी। हाँ , इस वक्त चढाई खत्म हो चुकी थी और आने वाले 4 किमी लगभग समान स्तर के हल्की चढाई वाले रास्ते थे पर पत्थरीले बोल्डर वाले। सावधानी हटी दुर्घटना घटी।
यूँ तो, मनेभंजंग से संदकफु तक प्रत्येक दो-तीन किमी पर ठहराव है और खाने रुकने की व्यवस्था भी है । इसलिए, अपनी अपनी क्षमता से रुकते बढते चलने में भी खास दिक्कत नहीं महसूस होती है। इन पत्थरीले बोल्डर वाले तीखे मोड़युक्त और तीखे हेयरबैण्ड वाले रास्तो पर 1956 की लैंडरोवर फुदकती हुई यूँ चढती है जैसे पेड़ की शाखाओं पर मुनिया पक्षी।
मुनिया एक पक्षी है जो भारत, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, फिलिपीन्स तथा अफ्रीका का देशज है। इसका आकार गौरैया से कुछ छोटा होता है। यह छोटे छोटे झुंडों में घास के बीच खाने निकलती है। खेतों में भूमि पर गिरे बीजों को खाती है। मंद-मंद कलरव करती है। यह छोटी झाड़ियों या वृक्षों में 5-10 फुट की उँचाई पर घोसला बनाती है।
इसकी चार पाँच उपजातियाँ हैं: श्वेतपृष्ठ मुनिया, श्वेतकंठ मुनिया, कृष्णसिर मुनिया, बिंदुकित (spotted) मुनिया तथा लाल मुनिया।
अचानक कुछ गड़गड़ाहट सी सुनायी पडी़ हमने सोचा कि शायद कोई गाडी़ आने वाली है और एहतियातन हम लोग ट्रैक से हटकर एक तरफ हो गये पर कोई नहीं आया और अचानक ढेर सारे महीन छर्रे हमारे चेहरों पर गिरने लगे.. अरे यार... ये तो बर्फबारी शुरू हो गई.. हम और तेज कदम से आगे बढने लगे और बौछारें भी तेज होने लगी हमने रुक कर अपने अपने बैकपैक से रेनकोट निकाले और पहन लिए। हमारे रास्ते काले से सफेद होने लगे थे। भागते कदमों की रफ्तार मंद होने लगी। नजरे नजारो से हटकर पैरो तले महीन और ताजे बर्फ पर गड़ने लगी। चर्र चर्र की आवाज जूतों के नीचे से आने लगी और हम अपने बहकते कदमों को रोक पाने में नाकाम हो रहे थे।
रास्ते अब धुंधलके मे धीरे धीरे गुम होने लगे थे, बादलो और धुंध ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। सुनसान और अँधेरे में डुब रहे रास्तों पर हमारे ही कदमों की आवाज पूरे वातावरण को रहस्मयी बना रही थी। बर्फबारी कभी तेज तो कभी धीमी हो रही थी पर हमारे लाख चाहने पर भी रुक नहीं रही थी। हमारे पैरों और जमीन के बीच बिछ रही सफेद दानेदार बर्फ की परत मोटी होने लगी थी। अब हमारे पैरों के रक्षक जूते कुछ इंच तक धँसने शुरु हो गये थे जिसके कारण मेरे साथियों के जूते गीले होने लगे और बर्फीली नमी उनके गरम मोजो को भीगाने लगी। ठंड की सिहरन अब पैरों से भी शुरू हो चुकी थी। मेरे साथ राहत की बात यह थी कि मेरे जूते वाटरप्रूफ होने के कारण मै उस सिहरन से अंजान था।
इस वक्त हम अपने आपको असुर समझने लगे कि जैसे हम स्वर्ग पर आधिपत्य जमाने के लिए इंद्रलोक पर हमला करने जा रहे हों और इंद्र, वरुण और पवन देव हमारे इस कथित आक्रमण को असफल करने की जीजान से कोशिश कर रहे थे। थोडी़ देर पहले ही पाण्डेजी ने आस पास के दिल लुटने वाले नजारों को देख कर इस जगह को स्वर्ग की उपाधि दे डाली थी। शायद यह स्वर्ग के देव इंद्र के सिंहासन को हिलाने के लिए काफी सिद्ध हो गया और अब हम तीनों ही इस स्वर्गारोहण के दोषी हो गये।
मंथर गति से चलते हुये हमें लगभग डेढ़ घंटा हो चुके थे और मंजिल दूर....। एक मोड़ पर मुड़ते ही हमें हल्की सी झलक मिली और हमारे चेहरे खिल उठे। हमने तिरंगे को लहराते देखा। जान में जान आने लगी कि इस विकट मौसम में जुझते हुए हम #कालीपोखरी पहूँच गये। सबने एक दूसरे को हाई फाइव दिया और जय हिंद की उद्घोष कर डाली। पर... हमारी ये खुशी जितनी तेजी से मिली थी उससे भी ज्यादा तेजी से दूर भी हो गई।
भारत की सशस्त्र सीमा बल की निगरानी में यह ट्रैक सुरक्षित है। सभी चेक पोस्ट उन्ही के जिम्मे है। जब हम #मनेभंजंग से आगे बढ़ते है तो वही से इनकी सुरक्षा चौकिंया पूरे भारतीय साइड के ट्रैक पथ पर मिलती हैं। ट्रैक के दौरान अक्सर हमें दो रास्ते मिलते हैं जिसमे एक भारतीय ट्रैक पथ है और दुसरा नेपाल का। कहीं कहीं तो दोनों देशों की सीमा रेखा का फर्क सिर्फ एक पतली सी नाली हीं है ।
वो तिरंगा हमारी मंजिल नहीं थी बल्कि सशस्त्र सीमा सुरक्षा बल की एक चौकी थी। यानि अभी हमे और चलना था। बर्फबारी हल्की या नाममात्र की हो रही थी, हम सब राहत की साँस ले रहे थे और अब धुंध छटने की आस लगाने लगे थे। चाल में तेजी लाने का प्रयास शुरु हो चुकी थी पर सावधानी के साथ। तभी सामने ऊपर से दो गाडि़या आती दिखी हम एहतियातन किनारे खडे़ हो गये और उनके पास आने का इंतजार करने लगे। जैसे ही वो हमारे पास से गुजरी हम सब ने एक साथ उत्कंठित स्वर में एक ही सवाल पूछा कि "मैलोडी इतनी चौकलेटी कैसे बनी?"
.. जी नहीं... हम मजाक के मूड में नहीं थे। अभी हम गंभीर थे 🙁और सवाल किया कि #कालीपोखरी अभी कितनी दुर है? पर सामने वालों ने शीशे चढा रखे थे और सर्र से बिना कोई जबाब दिये निकल लिये और हम मुँह ताकते रह गए। खैर आगे बढ़ने का कार्यक्रम जारी रखते हुए हम चल दिये। आस पास पेड़ पौधो के अलावे हमारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं था। अंदाजे से हमलोग को चलते हुये करीब दो सवा दो घंटे बीत चुके थे। हमारा मन भी कह रहा था कि "आस पास है खुदा"... मतलब #कालीपोखरी भी अब पास ही होनी चाहिए।
अचानक घोड़ों के चलने की आवाज आई। हम सतर्क हो आँखे पूरी तरह से खोलकर धुंधलके मे दूर तक देखने की कोशिश करने लगे। आवाजें पास आ रही थी अब साथ मे कुछ लोगों की मिश्रित आवाजे भी आ रही थी। शायद स्थानीय लोग हो इससे पूरी तरह समझ नहीं आ रही थी। हम भी बढ रहे थे। अगले मोड़ पर मुड़ते ही घोड़ों का झुण्ड नजर आया फिर तीन #कांछा आपस मे बतियाते हुए देखे जो सामने से चले आ रहे थे। कालापोखरी अभी कितनी दुर है? हमने छुटते ही पूछा...। पास ही है... 500 मीटर। बिना रुके वो आगे निकल गये और हमभी...।
बर्फबारी हल्की हल्की अभी भी जारी थी। अब हम तेज कदमों से आगे बढने लगे। चर्र चर्र... चर्र... चर्र... चर्र...
ये आवाजें भी तेज हो गई थी। पहाडो़ के 500 मीटर भी थका देने वाले होते हैं। घुमावदार हेयरपिन बैण्ड एक के बाद एक आते जा रहे थे और हम लोग #आगे_से_लेफ्ट वाले फार्मूलें का पालन करते जा रहे थे।
रेनकोट के अंदर की उमस बढ रही थी, बाहर बर्फबारी चालू। एकाएक से बर्फबारी काफी तेज हो गई, ये हमलोग पर जबरदस्त हमला था। अब कुछ नहीं हो सकता था सिवाय चलते रहने के। धुंध गहरा गई थी जो अब अँधेरे का रुप लेने लगी थी। हम सब बिना बताये भी एक दुसरे की फटी पडी़ हालत और सामने पडी़ हालात को समझ रहे थे। हवा चल नही रही थी उड़ा रही थी और अगली मोड़ पर मुड़ते ही वो हुआ जिसकी हमलोगों को अभी अँदाजा नहीं था।
यहाँ रास्ते पर लगभग चार से पाँच इंच तक सफेद ताजी मुलायम बर्फ की चादर और हमारे बायीं ओर के टीले पर लहराते हुए बौद्ध प्रार्थना पत्र की रंगीन झंडिया और एक छोटी तालाब, दिखी। आगे मै ही चल रहा था मुझे पहले दिखी। मै रुक गया तो दोनों साथियों ने पूछा क्या हुआ? मै चुप रहा। वे दोनों अबतक पास आ चुके थे और देखते ही शांत हो गये। हाई फाइव के लिए हाथ उठे जरुर पर हुए नहीं क्योंकि स्नोफाल अब तेज आँधी का रुप ले रही थी। कुछ भी नहीं देख पाना संभव हो रहा था। भाग भी नहीं सकते थे साँसे तेज हो चुकी थी।
इस तरह के मौसम और वातावरण का कोई अंदाजा नहीं था। और तो और #कालीपोखरी पर अभी किधर और कितनी दुर जाना है जहाँ सर छुपाने की जगह मिलेगी ये भी नहीं पता। बस, इंटरनेट पर पढी हुई ब्लाग और उसपर दिखे दिलकश और मनमोहक दृश्यों को देख मुँह उठाये चले आये थे। और यहाँ जो घटित हो रहा था इसके बारे में कही पढा़ ही नहीं। मैदानी भागो मे रहने वालो के लिए तो पहाडो़ के सामान्य मौसम भी पहाड़ समान ही होते हैं। पर ये तो........।
पैरों मे ठंड का अहसास तेज होने लगा था। मोजे गिले हो गये थे और जूते? वो तो बाहर दिख ही नहीं रहे थे। बर्फ में धँस चुके थे। बर्फीली हवा में आँखे पूरी तरह से खोल नहीं पा रहे थे हम सब। झिर्री से देखते हुए अब हम एक छोटी सी चढाई पर आ गये थे जहाँ से बर्फीली हवा हमे पीछे धकेल रही थी। करीब 50 मीटर चलने के बाद सामने एक शेड जैसा दिखा। उस वक्त डूबते को तिनके का सहारा वाली कहावत पूरी भावार्थ के साथ समझ आई। शायद इसीलिए लोग कहते हैं कि घुमक्कड़ी एक विद्या है जो बहुत कुछ सीखाती है।
खैर... अब हम सब शेड में थे। छोटा सा करीब आठ फीट लंबा और चार फीट चौडा़ शेड था संभवतः कोई दुकान रहा होगा। अभी भी खाली नहीं था उसमें पहले से चार लोग जिनमे तीन पुरुष और एक पुरुष नहीं था। माने एक महिला घुमक्कड़ थी सभी अपने बैकपैक के साथ आसरा लिए हुए थे। पूछने पर मालूम चला कि एक पुरुष और एक महिला चेन्नई से, एक पुरुष मुंबई से और एक पुरुष स्थानीय गाइड था। जो करीब चालीस मिनटों से इस शेड के शरणार्थी थे। अब हम तीनों ने भी शरणार्थी होने का दावा पेश कर दिया था।
तेज बर्फबारी जारी है...
शेष अगले भाग में...